बौद्ध संगीति का तात्पर्य उस 'संगोष्ठी' या 'सम्मेलन' या 'महासभा' से है, जो तथागत बुद्ध के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात से ही उनके उपदेशों को संगृहीत करने, उनका पाठ (वाचन) करने आदि के उद्देश्य से सम्बन्धित थी। इन संगीतियों को प्राय: 'धम्म संगीति' (धर्म संगीति) कहा जाता था। संगीति का अर्थ होता है कि 'साथ-साथ गाना'।
इतिहास में चार बौद्ध संगीतियों का उल्लेख हुआ है-
प्रथम बौद्ध संगीति (483 ई.पू.)
आज राम = आज+रा+म
1. आज-अजातशत्रु (शासनकाल)
2. रा-राजगृह (स्थान)
3. म-महाकश्यप (अध्यक्ष)
प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन 483 ई.पू. में 'राजगृह' (आधुनिक राजगिरि), बिहार की 'सप्तपर्णि गुफ़ा' में किया गया था। गौतम बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के कुछ समय बाद ही इस संगीति का आयोजन किया गया था।
इस संगीति में बौद्ध स्थविरों (थेरों) ने भी भाग था।
बुद्ध के प्रमुख शिष्य 'महाकस्यप' (महाकश्यप) ने इसकी अध्यक्षता की।
तथागत बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए संगीति में उनके तीन शिष्यों-'महापण्डित महाकाश्यप', सबसे वयोवृद्ध 'उपालि' तथा सबसे प्रिय शिष्य 'आनन्द' ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया।
इसके पश्चात उनकी ये शिक्षाएँ गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक चलती रहीं, उन्हें लिपिबद्ध बहुत बाद में किया गया। ये बौद्ध काल की प्रथम संगीति हुयी॥
द्वितीय बौद्ध संगीति (383 ई.पू.)
कल वैशाली सब = कल+वैशाली+सब
1. कल-कालाशोक (शासनकाल)
2. वैशाली-वैशाली (स्थान)
3. सब-सबाकामी (अध्यक्ष)
दूसरी बौद्ध सगीति का आयोजन वैशाली में किया गया था। इस संगीति का आयोजन 'प्रथम बौद्ध संगीति' के एक शताब्दी बाद किया गया।
एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो गया।
इस विवाद के परिणामस्वरूप ही वैशाली में यह बौद्ध संगीति आयोजित हुई।
इस संगीति में विनय-नियमों को और भी कठोर बनाया गया।
जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन कर दिया गया।
तृतीय बौद्ध संगीति (255 ई.पू.)
आपके मत = आ+पके+म+त
1. आ-अशोक (शासनकाल)
2. पके-पाटलिपुत्र (स्थान)
3. म+त-मोग्गलीपुत्त तिस्स (अध्यक्ष)
तीसरी बौद्ध संगीति का आयोजन 249 ई.पू. में सम्राट अशोक के शासनकाल में पाटलीपुत्र में किया गया था। इस बौद्ध संगीति की अध्यक्षता तिस्स ने की थी। इसी संगीति में 'अभिधम्मपिटक' की रचना हुई और बौद्ध भिक्षुओं को विभिन्न देशों में भेजा गया। इनमें अशोक के पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया था।
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार तथागत बुद्ध के निर्वाण के 236 वर्ष बाद इस संगीति का आयोजन हुआ।
सम्राट अशोक के संरक्षण में तीसरी संगीति 249 ई.पू. में पाटलीपुत्र में हुई थी।
इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता तिस्स मोग्गलीपुत्र ने की थी।
विश्वास किया जाता है कि इस संगीति में 'त्रिपिटक' को अन्तिम रूप प्रदान किया गया।
यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया था, तब यह मानना उचित होगा, कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा।
इस संगीति के बाद भी भरपूर प्रयास किए गए कि सभी भिक्षुओं को एक ही तरह के बौद्ध संघ के अंतर्गत रखा जाये, किंतु देश और काल के अनुसार इनमें बदलाव आता रहा।इस तरह ये तीसरी संगीति अशोक के शासन मे हुयी।
चतुर्थ बौद्ध संगीति (ई. की प्रथम शताब्दी)
कनकवन में अब = कन+क+वन+में+अ+ब
1. कन-कनिष्क (शासनकाल)
2. क+वन-कुण्डलवन (स्थान)
3. अ+ब-अश्वघोस/बसुमित्र/वसुमित्र (अध्यक्ष)अंतिम बौद्ध संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल (लगभग 120-144 ई.) में हुई। यह संगीति कश्मीर के 'कुण्डल वन' में आयोजित की गई थी। इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। अश्वघोष कनिष्क का राजकवि था।
इसी संगीति में बौद्ध धर्म दो शाखाओं- हीनयान और महायान में विभाजित हो गया। हुएनसांग के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन: संकलन व संस्करण हुआ। इसके समय से बौद्ध ग्रंथों के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ और महायान बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ। इस संगीति में नागार्जुन भी शामिल हुए थे। इसी संगीति में तीनों पिटकों पर टीकायें लिखी गईं, जिनको 'महाविभाषा' नाम की पुस्तक में संकलित किया गया। इस पुस्तक को बौद्ध धर्म का 'विश्वकोष' भी कहा जाता है।इस तरह अब तक बौद्ध धर्म की चार संगीतियां हुयी
इतिहास में चार बौद्ध संगीतियों का उल्लेख हुआ है-
प्रथम बौद्ध संगीति (483 ई.पू.)
आज राम = आज+रा+म
1. आज-अजातशत्रु (शासनकाल)
2. रा-राजगृह (स्थान)
3. म-महाकश्यप (अध्यक्ष)
प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन 483 ई.पू. में 'राजगृह' (आधुनिक राजगिरि), बिहार की 'सप्तपर्णि गुफ़ा' में किया गया था। गौतम बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के कुछ समय बाद ही इस संगीति का आयोजन किया गया था।
इस संगीति में बौद्ध स्थविरों (थेरों) ने भी भाग था।
बुद्ध के प्रमुख शिष्य 'महाकस्यप' (महाकश्यप) ने इसकी अध्यक्षता की।
तथागत बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए संगीति में उनके तीन शिष्यों-'महापण्डित महाकाश्यप', सबसे वयोवृद्ध 'उपालि' तथा सबसे प्रिय शिष्य 'आनन्द' ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया।
इसके पश्चात उनकी ये शिक्षाएँ गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक चलती रहीं, उन्हें लिपिबद्ध बहुत बाद में किया गया। ये बौद्ध काल की प्रथम संगीति हुयी॥
द्वितीय बौद्ध संगीति (383 ई.पू.)
कल वैशाली सब = कल+वैशाली+सब
1. कल-कालाशोक (शासनकाल)
2. वैशाली-वैशाली (स्थान)
3. सब-सबाकामी (अध्यक्ष)
दूसरी बौद्ध सगीति का आयोजन वैशाली में किया गया था। इस संगीति का आयोजन 'प्रथम बौद्ध संगीति' के एक शताब्दी बाद किया गया।
एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो गया।
इस विवाद के परिणामस्वरूप ही वैशाली में यह बौद्ध संगीति आयोजित हुई।
इस संगीति में विनय-नियमों को और भी कठोर बनाया गया।
जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन कर दिया गया।
तृतीय बौद्ध संगीति (255 ई.पू.)
आपके मत = आ+पके+म+त
1. आ-अशोक (शासनकाल)
2. पके-पाटलिपुत्र (स्थान)
3. म+त-मोग्गलीपुत्त तिस्स (अध्यक्ष)
तीसरी बौद्ध संगीति का आयोजन 249 ई.पू. में सम्राट अशोक के शासनकाल में पाटलीपुत्र में किया गया था। इस बौद्ध संगीति की अध्यक्षता तिस्स ने की थी। इसी संगीति में 'अभिधम्मपिटक' की रचना हुई और बौद्ध भिक्षुओं को विभिन्न देशों में भेजा गया। इनमें अशोक के पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया था।
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार तथागत बुद्ध के निर्वाण के 236 वर्ष बाद इस संगीति का आयोजन हुआ।
सम्राट अशोक के संरक्षण में तीसरी संगीति 249 ई.पू. में पाटलीपुत्र में हुई थी।
इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता तिस्स मोग्गलीपुत्र ने की थी।
विश्वास किया जाता है कि इस संगीति में 'त्रिपिटक' को अन्तिम रूप प्रदान किया गया।
यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया था, तब यह मानना उचित होगा, कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा।
इस संगीति के बाद भी भरपूर प्रयास किए गए कि सभी भिक्षुओं को एक ही तरह के बौद्ध संघ के अंतर्गत रखा जाये, किंतु देश और काल के अनुसार इनमें बदलाव आता रहा।इस तरह ये तीसरी संगीति अशोक के शासन मे हुयी।
चतुर्थ बौद्ध संगीति (ई. की प्रथम शताब्दी)
कनकवन में अब = कन+क+वन+में+अ+ब
1. कन-कनिष्क (शासनकाल)
2. क+वन-कुण्डलवन (स्थान)
3. अ+ब-अश्वघोस/बसुमित्र/वसुमित्र (अध्यक्ष)अंतिम बौद्ध संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल (लगभग 120-144 ई.) में हुई। यह संगीति कश्मीर के 'कुण्डल वन' में आयोजित की गई थी। इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। अश्वघोष कनिष्क का राजकवि था।
इसी संगीति में बौद्ध धर्म दो शाखाओं- हीनयान और महायान में विभाजित हो गया। हुएनसांग के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन: संकलन व संस्करण हुआ। इसके समय से बौद्ध ग्रंथों के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ और महायान बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ। इस संगीति में नागार्जुन भी शामिल हुए थे। इसी संगीति में तीनों पिटकों पर टीकायें लिखी गईं, जिनको 'महाविभाषा' नाम की पुस्तक में संकलित किया गया। इस पुस्तक को बौद्ध धर्म का 'विश्वकोष' भी कहा जाता है।इस तरह अब तक बौद्ध धर्म की चार संगीतियां हुयी
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